एक कदम
गाँव के आत्मनिर्भरता की ओर
आज समस्त विश्व कोरोना नाम की भीषण महामारी से जूझ रहा है संक्रमण और मृतकों की संख्या में वृद्धि की होड़ लगी हुई है । जीवन और मृत्यु के इस खेल में सब कुछ ठप हो गया है । समस्त बड़े उद्योग-धन्धे, शिक्षण संस्थान, सेवाएँ रोक दी गई हैं, बचने का कोई मार्ग न दिखते हुए सरकार को लॉकडाउन का मजबूरन सहारा लेना पड़ा है । इस संकट की घड़ी में सभी टकटकी लगाये हुए अपने गाँव की ओर देख रहे हैं । यह वही गाँव हैं जिनको शहर की आलिशान चमक के सामने धुत्कार दिया जाता है और कहा जाता है कि गाँव रहने लायक नहीं हैं । जब २१ मार्च को देश व्यापी लॉक डाउन की घोषणा हुई तब शहरी क्षेत्र के लोगों ने अपने गाँव की ओर रुख करना प्रारम्भ किया । इस आशा के साथ कि उनके गाँव में उनको दो जून की रोटी तो नसीब हो ही जाएगी । वास्तव में जब देश में सब कुछ बंद है तब देश की १३३ करोंड़ जनता का भरण पोषण करने के लिए आज भी हमारे गाँव मजबूती के साथ खड़े हैं ।
गाँव कोई अनजान व्यक्तियों का समुदाय नहीं हैं न ही यह शहर की तरह विभिन्न क्षेत्रों से रोजगार की तलाश में आये हुए लोगों की भीड़ हैं । यह एक कुटुंब है जो किसी एक व्यक्ति के वंश के विस्तार से उत्पन्न कई पीड़ियों के प्यार, स्नेह, समर्पण से जुड़ी डोर की माला है । जिसमें गाँव में निवास करने वाले अधिकांश व्यक्ति आपस में चाचा, ताऊ, बाबा, दादा, बुआ, दादी है । यह रिश्ता नाम का नहीं है अपितु एक ही खून का है जो परिवार के बढ़ने और घर छोटा पड़ने के कारण दूसरा घर बना कर रह रहे हैं । फिर भी सब एक हैं और एक परिवार हैं। आवश्यकता पड़ने पर सब एक साथ है । इस परिवार को किस प्रकार आगे ले जाया जाये और इस परिवार को किस प्रकार आत्मनिर्भर बनाया जाये इस विषय में हमें ही सोचना होगा । इस परिवार के सुख दुःख की जिम्मेदारी के लिए हमें स्वयं प्रयास करने होंगें । जब तक हमारा यह परिवार आत्मनिर्भर नहीं होगा, तब तक न हमारा जिला आत्मनिर्भर होगा, न राज्य और न ही देश । यदि देश को आत्मनिर्भर बनाना है तो इसका बीज पहले हमें अपने परिवार में ही लगाना होगा । यहीं से इसकी शाख का विस्तार धीरे -धीरे समस्त देश को छाव प्रदान करेगा ।
समस्या से भागना समस्या से कुछ पल का हल दिखा तो सकता है परन्तु समस्या से निपटने का हुनर नहीं सिखा सकता । इसके लिए हमें समस्या से निपटने का प्रयास करना पड़ेगा । एक बार में सफलता न मिले तो पुनः नवीन चेतना के साथ नवीन युक्ति के साथ प्रयास करना होगा और जब यह प्रयास कई बार हो जाएगा तब यह हमारी आदत बन चूकी होगी, इस प्रकार की समस्याओं के समाधान करने की । जब हम यह महसूस करते है कि हमारे गाँव में सुख सुविधा या तकनीक का अभाव है तब हमारा प्रयास होना चाहिए कि समस्त गाँव के साथ बैठकर चिंतन कर उसका निवारण करें और अपने गाँव की सभी आवश्यकता की पूर्ति अपने गाँव से करें, गाँव को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करें । राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस के अवसर पर भारत देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी कहा कि "पंचायत, जिले और राज्य आत्मनिर्भर बनें ताकि अपनी जरूरतों के लिए कभी बाहरियों का मुँह न देखना पड़े" ।
हमारे आत्मनिर्भरता की दौड़ में पीछे रहने का कारण आत्मबल का कम होना नहीं है अपितु हमारा नागरिक न बनकर लाभार्थी बने रहना है । देश में पहले जनता के ऊपर कई सौ वर्षों तक मुगलों का शासन रहा और फिर अंग्रेजों ने हम पर कई सौ वर्ष तक हुकूमत की और हमें गुलाम बनाये रखा । १५ अगस्त १९४७ को हमें गुलामी से आजादी तो मिल गई उसके बाद सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के चक्रव्यूह में इस प्रकार फंसते चले गए कि हम गुलाम के बाद लाभार्थी बन कर रह गए कभी भी एक जिम्मेदार और सजग नागरिक नहीं बन सकें। यही रोग सदैव हमें निर्णय लेने और तत्परता से कार्य करने से रोक देता है और अपेक्षा का ऐसा मकड़जाल बुन देता है कि हम सरकारी, गैर-सरकारी, अधिकारी, राजनैतिक और सम्भ्रांत व्यक्तियों का मुँह देखते रहते हैं या उनके पीछे भागते हैं कि वह हमारे लाभार्थी बन चुके जीवन में पुनः कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करें । हमें इस मानसिकता को बदलना होगा हमें देश का एक सच्चा और सजग नागरिक बनना होगा ।
हमें स्वयं तो अपने बल पर आगे बढ़ना तो होगा ही साथ ही अपने परिवार, गाँव, जिले को भी आगे बढ़ाने के लिए मार्ग प्रशस्त करना होगा और अपनी जिम्मेदारी समझते हुए आवश्यकता महसूस हो तो हाथ पकड़कर आगे की ओर खींचना पड़ेगा ।
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