सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
हमारी संस्कृति ने सदैव दूसरों के लिए जीना सिखाया है। हमारी यही भावना हमें विश्व में निवास करने वाली की सभी अन्य जीवन-शैलियों से अलग और महान बनाती है। अपने हितों की चिन्ता किये बिना जनमानस के कल्याण के लिए अपने जीवन को समर्पित कर देने का नाम ही भारतीय जीवन शैली है। यह हमें सिखाती है स्वयं भूखे रहकर दूसरों का पेट भरना, स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की सेवा करना। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत, अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी रहें , सभी मंगल घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। यही हमारे जीवन का मूल मन्त्र है। इस संस्कृति ने मनुष्यों में अपने निज स्वार्थ से अधिक विश्व कल्याण की भावना के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देने का भाव उत्पन्न किया है। भारतीयों ने मन में बसे इसी भाव से अपना सब कुछ त्याग करके भी सम्पूर्ण जग को जीत लिया है और सदैव के लिए अमर हो गए। इसी गौरवशाली परम्परा को वर्तमान वंशजों को आगे लेकर चलना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए।
भारत देश के स्वर्णिम इतिहास में अनेकों दानवीरों ने जन्म लिया है। जो न सिर्फ भारत वर्ष के अपितु विश्व के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बने। जिन्होंने आवश्यकता पड़ने अपने धन के साथ-साथ अपने जीवन का दान करने में भी कभी संकोच नहीं किया। इसी परम्परा में एक महान वैदिक ऋषि हुए है जिन्हें हम दधीची के नाम से जानते हैं। प्रचलित कथा के अनुसार जब इन्द्रलोक पर वृत्रासुर नामक राक्षस ने अपना अधिकार कर लिया और समस्त देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। तब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पास गए और अपनी व्यथा सुनाई जिसके उपरान्त ब्रह्मा जी ने उन्हें इस समस्या का उपाय बताते हुए कहा कि पृथ्वी लोक पर दधीची नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वह अपनी अस्थियाँ दान कर दें तो उनकी अस्थियों से जो वज्र बनेगा उससे वृत्रासुर मारा जा सकता है। वृत्रासुर को यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी भी अस्त्र- शास्त्र से नहीं मारा जा सकता है। इसके बाद इन्द्र ने दधीची की शरण में जा कर उनसे अपनी पीड़ा सुनाई तथा अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीची ने बिना किसी हिचकिचाहट लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियों को दान देना स्वीकार कर लिया और समाधी लगाकर अपना देह त्याग दिया।
दान वीरों में एक दूसरा नाम आता है जो अपने त्याग और समर्पण के कारण अमर हो गए। दानवीर कर्ण जिनका जिक्र किये बिना विषय को पूर्ण नहीं किया जा सकता। महाभारत से जुड़ी हुई एक कहानी है सूर्य पुत्र कर्ण की। युद्ध के समय सभी को यह ज्ञात था कि कर्ण को कवच और कुण्डल वरदान स्वरुप प्राप्त हुए हैं और जब तक उनके पास कवच और कुण्डल हैं तब तक उन्हें कोई भी हरा नहीं सकता है। युद्ध में एक भिक्षुक के द्वारा योजनाबद्ध रूप से कवच और कुण्डल दान स्वरुप मांगने पर कर्ण ने अपने जीवन की चिन्ता किए बिना कवच और कुण्डल दान कर दिए। कर्ण की दानशीलता को देख वह प्रसन्न हुए और कर्ण से कुछ मांगने के लिए कहते हैं। लेकिन कर्ण "दान देने के पश्चात् कुछ माँग लेना यह दान की गरिमा के विरुद्ध है" ऐसा कहकर मुस्कुरा बात टाल जाते हैं।
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र चन्द्र के विषय में कौन नहीं जानता जिन्होंने अपने कहे को निभाने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इन्होंने अपने दानी स्वाभाव के कारण महर्षि विश्वामित्र को अपना सम्पूर्ण राज्य दान कर दिया फिर भी दक्षिणा की पूर्ति न होने के कारण अपनी पत्नी, पुत्र और स्वयं को बेच कर शमशान के डोम के यहाँ नौकरी करने लगे। इस प्रकार का उदाहरण शायद ही विश्व के इतिहास में कहीं और देखने को मिले।
त्याग और समर्पण की भावना ही हमारी पूंजी है जिसने इतनी भाषाएँ, रिवाज, प्रान्त होने के बाद भी सम्पूर्ण भारत वर्ष को एक साथ जोड़ कर रखा हुआ है। जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम को पिता के वचन स्वरुप अयोध्या की राजगद्दी को छोड़कर 14 वर्षों के लिए वन जाने का आदेश प्राप्त हुआ तब उन्होंने बिना किसी संकोच के वनों में जाकर निवास करना स्वीकार कर लिया। वहीं दूसरी ओर भरत ने अपने बड़ें भाई के आदेश का पालन करते हुए अयोध्या का राज-काज तो संभाला परन्तु बड़े भाई की चरण पादुका को सिंघासन पर रखकर उतने ही समय सन्यासियों जैसा जीवन व्यतीत किया।
भारत देश ऐसे अनेकों दानवीरों की कहानियों और किस्सों से भरा हुआ है जो आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बने हुए हैं । जिन्होंने समय समय पर आवश्यकता पड़ने पर बिना किसी संकोच के अपना सब कुछ दान कर दिया त्याग कर दिया। कभी भी किसी प्रतिफल की चिंता नहीं की। वास्तव में दान का महत्त्व भी तभी है जब वह बिना किसी हित व स्वार्थ की भावना के साथ किया जाए। वर्तमान समय में जब लोग अपने निज स्वार्थ के लिए छोटी-छोटी बातों पर लड़ रहे है इस समय भी भारत देश की संस्कृति से प्रेरित अनेक दानवीर अपने कर्म का निर्वाह कर रहे हैं। आवश्यकता पड़ने पर बिना किसी स्वार्थ के रक्त, नेत्र का दान तो किया जा रहा है। लेकिन अभी हाल ही में जब सम्पूर्ण विश्व कोरोना के संक्रमण से ग्रस्त था और वैज्ञानिकों को वैक्सीन के परीक्षण हेतु शरीर की आवश्यकता पड़ी तब देश के कोने-कोने से अनेक लोगों ने अपने जीवन की परवाह किये बिना परिक्षण हेतु अपना शरीर देने की पहल की। यही हमारी परम्परा और संस्कृति का परिणाम है कि आज भी विश्व कल्याण की भावना हमारे लिए सर्वोपरि है ।
-डॉ. प्रशान्त कुमार मिश्र
(लेखक
सामाजिक चिन्तक और विचारक हैं )
गौतमबुद्ध
नगर,
उत्तर प्रदेश
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