निर्भय
होकर बढ़ने से ही मिलेगी सफलता
जब
हमारे मन से हारने का भय समाप्त हो जाता है,
तब
लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग स्वत: ही सरल हो जाता है।
मंजिलों
को पाने की लालसा सभी में होती है। लेकिन
विजय का स्वाद चख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं होता है। कारण मात्र,
उसकी ओर निर्भय होकर बढ़ने का साहस न जुटा पाना और धैर्य के साथ सतत
प्रयास के मार्ग से भटक जाना है। आम तौर पर दिन भर में किसी भी आम मनुष्य के मन
में असंख्य विचार आते हैं। कुछ सकारात्मक होते हैं, तो कुछ
नकारात्मक। जहाँ एक ओर सकारात्मक विचार हमें सदैव अँधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने
का कार्य करते हैं वहीं दूसरी ओर नकारात्मक विचार हमें सदैव इसके ठीक विपरीत जाने
के लिए प्रेरित करते हैं। सृजन, सकारात्मक विचारों का ही एक
भाग है जो हमें नई उम्मीद के सहारे कुछ नया करने के लिए कहता है, फिर हमारा मन और मस्तिष्क इस दिशा में क्रियाशील हो जाते हैं और नए
विचारों की उत्पत्ति होनी शुरू हो जाती है। यह सभी विचार हमें, हमारे मन और मस्तिष्क में बने लक्ष्य की ओर बढ़ने की सलाह देते हैं और उसके
लिए विभिन्न प्रकार के मार्ग भी प्रदर्शित करते हैं। इसके साथ ही हमारे मन में एक
और भाव उत्पन्न होने लगता है जिसे नकारात्मक भाव कहते हैं। यह हमें पीछे की ओर
धकेलता है और हमें मार्ग में आने वाली बाधाओं और विपदाओं के प्रति सूचित करता है।
किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले उचित प्रकार उसके दोनों पहलुओं पर ध्यान से
चिंतन और मनन करना चाहिए, जो एक स्वाभाविक क्रिया है। परन्तु
इस क्रिया का परिणाम पक्ष और विपक्ष दोनों ओर हो सकता है। इसके लिए यह परम आवश्यक
है कि हम अपने विवेक के सामर्थ्य के साथ मस्तिष्क से उचित निर्णय लें।
यह
प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है। यही हमारी आवश्यकताओं और लक्ष्य की प्राथमिकताओं
को भी परिभाषित करती है। मनुष्य के जीवन में सफलता के तीन चरण होते हैं पहला चरण
किसी भी कार्य को करने का मन बनाने के पश्चात् समस्त ध्यान को विकेन्द्रित करने
वाले अवयवों को किनारे करते हुए उसको प्रारम्भ करने का साहस जुटा पाना है। दुसरा
चरण वह है जब कार्य प्रारम्भ होने के बाद उसमें विभिन्न प्रकार की बाधाएं आनी शुरू
होती हैं जो मन को हतोत्साहित करने का कार्य करती हैं । इससे भी अधिक प्रभाव हमारे
समाज के गतिहीन और असमर्थ विचारों का आना कहीं न कहीं हमारे मनोबल को कम करता है।
परन्तु कुशल व्यक्ति को इन सभी को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ते जाना चाहिए। एक तीसरा
चरण आता है जब हम अपने लक्ष्य के निकट पहुँच जाते हैं और हमारा सामना अब तक कि
सबसे बड़ी मुश्किल के साथ होता है उस समय मन पूर्ण रूप से यह सोचने और मानने को
मजबूर हो जाता है कि अब लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जबकि मंजिल हम से कुछ कदम ही
दूर होती है और यह लक्ष्य प्राप्ति की ओर अंतिम बाधा होती है। इस समय मन सर्वाधिक
निराशा भरा होता है। कारण यह है कि प्रयास करते-करते धैर्य का बांध दुटने को
व्याकुल है और जोखिम उठाने का साहस भी अब साथ छोड़ने को तैयार है। इस समय व्यक्ति
को अपना समस्त बल और धैर्य का प्रयोग करते हुए
पूर्ण विश्वास के साथ बाधा पर टूट पड़ना चाहिए। ऐसा करने से मन की एकाग्रता
का भाव और साहस बाधा से अधिक बलशाली हो जाता है और हम अपने निर्धारित लक्ष्य को
प्राप्त कर पाते हैं।
मनुष्य
का जीवन चारों ओर से किसी न किसी भय से घिरा हुआ है। साइकिल चलाते हुए गिरने का भय,
तैरना सीखते हुए डूबने का भय, स्कूल में
अनुत्तीर्ण होने का भय, व्यापार में नुकसान का भय, घर में चोरी का भय, जीवन पर्यंत मृत्यु का भय । ऐसा
नहीं है कि हम इनको नकारते हुए बिल्कुल लापरवाह हो जाए। जिस प्रकार आसमान में बादल
हमें बारिश के प्रति सचेत करता है ठीक उसी प्रकार यह हमें आने वाली बाधाओं के
प्रति सचेत करने के लिए है। यदि हम इसी भय में उलझें रह जाते हैं तब न सिर्फ अपनी
कार्य क्षमता प्रभावित होती है अपितु वह लोग जो हमें अपना प्रेरणा स्त्रोत मानते
हैं, उनका मनोबल भी कम हो जाता है। कार्यों में मिली असफलता
जीवन में एक अनुभव है जो हमें अतिरिक्त सुधार कर पुनः लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए
प्रेरित करती है । यदि चंद्रगुप्त मौर्य हार के भय से युद्ध नहीं करता तो कभी भी
विश्वविजेता सिकन्दर को नहीं हरा पाता। यदि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस अंग्रेजों से
डर जाते तो कभी भी आजाद हिन्द फ़ौज खड़ी नहीं कर पाते। यदि जीवन का भय होता तो एक
पैर से अपंग अरुणिमा सिन्हा कभी भी विश्व की सबसे ऊँची पर्वतीय चोटी
"एवरेस्ट" पर नहीं चढ़ पाती। ऐसे असंख्य उदाहरण है जिन्होंने अपने
हौंसलें से निर्भय होकर सफलता पायी है।
इतिहास
साक्षी है कि जिन्होंने भय के आवरण से निकलकर अपने लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित
किया है। विजय का स्वाद भी सिर्फ उन्होंने ही चखा है।
-
प्रशान्त मिश्र
(लेखक
सामाजिक चिन्तक और विचारक हैं )
ग्रेटर
नॉएडा, उत्तर प्रदेश
सम्पर्क
सूत्र :-7599022333
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