Monday, September 19, 2022

अपनत्व का भाव है मातृभाषा हिन्दी

 

अपनत्व का भाव है मातृभाषा हिन्दी


जब मन ख़ुशी और आनंद से सराबोर हो तो स्वर्ण की चमक व विजय रथ की धमक भी फींकी सी नजर आती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार किसी दूध मुहें बच्चे को जो ख़ुशी अपनी माँ की गोद में आती है, जो सकून ममता के आँचल में आता है, उसको यदि विश्व की कोई भी मूल्यवान वस्तु ला कर दी जाये तो वह ममता की ओर जाने के लिए रो पड़ेगा। ठीक उसी प्रकार जब सर्व जगत में किसी अन्य भाषा का प्रभुत्व हो आपकी दिनचर्या भी पराएँ शब्दों से बंधी हो और स्वयं को “लोहे की बेड़ियों” में जकड़ा हुआ महसूस करें और लगे कि..

“पाश्चात्य” की झूठी धरा पर, “माथ” खोजती बिंदी

“सिंध” के ही घर आज, बेगानी हो गई मेरी “हिन्दी”

              हम कहाँ जा रहे हैं, अपनी सभ्यता को छोड़कर अपनी संस्कृति को छोड़कर? मात्र वो भी किसलिए की हम परायों की ली हुई वस्तु और भाषा पर गर्व महसूस कर सकें। परन्तु क्या यह गर्व की भावना सिर्फ दूसरों को प्रदर्शित करने के लिए नहीं है, क्या आपका मन अपने संस्कार को मानने के लिए नहीं करता? करता है, परन्तु कहीं न कहीं एक अँधेरे की पोटली में छिपा हुआ भय हमें आपने संस्कार व अपने ही घर में अपनी भाषा की अवहेलना करने को मजबूर कर देता है।

             यदि यह सत्य है , तो अपने झूठी दुनिया की “काल्पनिक बाधा” से बाहर निकलिए और एक आजाद पंछी की तरह खुले नील गगन में उड़ते जाइए जहाँ न कोई बाधा हो, जहाँ हम खुलकर उड़ सकें ,और ऊपर और ऊपर बस उड़ते जाइए। उस आकाश में जो ख़ुशी और आनंद का अनुभव होगा वही हिन्दी भाषा के लिए जीवन में “अपनापन” है , जो एक माँ कि तरह शिशु को गोद में चैन  की नींद सुला देता है।

भारत के संविधान के भाग १७ के अनुच्छेद ३५१ में हिंदी भाषा के विकास के लिए दिए गए निर्देशों में लिखा है कि  "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किये बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवशयक और वांछनीय हो उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।"

संविधान सभा ने १४ सितम्बर १९४९ को हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया था इस पावन दिवस की स्मृति में प्रतिवर्ष १४ सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है इसी के साथ १ सितम्बर से १५ सितम्बर तक हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाता है जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम हिंदी भाषा को ध्यान में रखकर आयोजित किये जाते हैं। हिंदी दिवस का आयोजन करना, कुछ दिन हिंदी की महिमा का गुणगान करने मात्र से क्या हमारी भाषा को वैभव के परम शिखर पर ले जा सकते है क्या? यदि नहीं तो ऐसे झूठे दिखावे करने मात्र से हम अपने मन को दिलासा तो दे सकते हैं लेकिन जब हम स्वयं बाद में अंग्रेजी भाषा को अपने आत्मसम्मान से जोड़कर देखने लगते हैं तो कहीं न कहीं ये हमारा स्वयं के साथ किया हुआ छलावा है, जो न सिर्फ हमने स्वयं के साथ किया है अपितु हम अपने आने वाली पीढ़ियों के साथ भी कर रहे हैं। जिसके परिणाम काफ़ी भयानक और कष्ट दायी होंगें। कार्यक्रम आयोजित करने मात्र से हिंदी भाषा की स्थिति नहीं परिवर्तित होने वाली है इसे हमें अपने निज जीवन में उतार कर इसके लिए व्यापक और ठोस कदम उठाने होंगें।

क्या आपने कभी किसी और देश के राष्ट्र प्रतिनिधि को भारत में आकर हिन्दी में भाषण देते हुए सुना है आप कहेंगें न, क्यों? क्या कारण है?  कि वो दुसरे देश में जा कर अपनी भाषा को बोलने के लिए क्षणिक भर भी विचार नहीं करते तो क्या कारण हैं कि भारत देश का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों को अंग्रेजी भाषा में अपने विचार रखने पड़ते हैं कहीं न कहीं यह हिंदी भाषा के प्रति उनका दोरुखा व्यवहार है। इसके परिवर्तन की आवश्यकता है। जब भारत देश का कोई भी प्रतिनिधि किसी भी वैश्विक मंच पर हिन्दी भाषा में वार्तालाप करता है तो यह सिर्फ उनके लिए गौरव की बात नहीं होती अपितु उस मंच से जुड़ें समस्त समस्त दुनिया में निवास करने वाले भारत वासियों और हिन्दी प्रेमियों के ह्रदय में उनकी मातृभाषा के सम्मान की बात होती है।

४ अक्तूबर १९७७ को जब अटल बिहारी वाजपयी जी ने युएन के ३२ वें अधिवेशन में हिंदी भाषा में भाषण दिया तब सदन तालियों की आवाज से गूंज उठा। मानों समस्त विश्व किसी वैश्विक मंच पर हिंदी भाषा की आवाज सुनने की वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा हो। वर्तमान समय में जब कभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अन्तराष्ट्रीय मंचों पर हिन्दी भाषा में अपने विचार व्यक्त करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा कोई अपना ही हमारे लिए कुछ कह रहा है। आखिर हिन्दी भाषा जैसा अपनत्व पाश्चात्य शैली की भाषा में हो ही नहीं सकता। हिन्दी संस्कृति की भाषा है जो पारिवारिक सम्बन्धों को जोड़ती है। अपनों से अपनत्व का बोध कराती है। आज भी चाचा शब्द अपने और अंकल परायों का बोध कराता है। हम सभी ने ऐसा महसूस किया होगा। ऐसा क्यों? जरुर सोचिएगा।

आप अंग्रेजी सीखें, उर्दू, तमिल,मलय, बंगाली,मंदारिन, स्पेनिश,अरबी, फ्रेंच विश्व में बोली जाने वाली कोई भी भाषा सीखें यह आपके ज्ञान की क्षमता को प्रदर्शित करेगी लेकिन मातृभाषा हिन्दी की अवहेलना करना और उसको महत्त्व न देकर अंग्रेज़ी को महामंडित करना कहीं न कहीं आपका अपनी भाषा के प्रति अन्याय होगा।

 आइये! हम भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के “नया भारत” के सपने के लिए संकल्प लें, कि...

                   “जब हम भारत देश की आजादी का शताब्दी महोत्सव वर्ष २०४७ में मना रहें होंगे, जब सम्पूर्ण विश्व भारत के नेतृत्व में आगे की ओर बढ़ चला होगा, हम उस सुनहरे पल में अपनी जननी की भाषा हिन्दी को विश्वपटल के सिंघासन पर विराजमान होता देखेंगे” इस संकल्प को सिद्ध करेंगे।

- प्रशान्त मिश्र

(लेखक  सामाजिक  चिन्तक और विचारक हैं )

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश

   

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