गाँव से बढ़ती दुरी
मेरा गाँव जाना और
वहाँ से लौट
आना कहीं न कहीं मन
में एक कड़ी
के टूटने का
एहसास कराता है
मानो मुझसे कुछ
छूटता जा रहा
है । कुछ
ऐसा जिसके छुट
जाने से मेरी जीवन के
कैनवास पर रंग
तो होंगे पर
वो मात्र रंग
होंगें, जो दूर
से देखने में
तो सुन्दर प्रतीत होते हैं
पर उनकी चमक
कहीं खो सी
गई होती है
। वो पेंटिंग को
रंगीन तो कर
सकते हैं परन्तु उसमें सुगन्ध और
प्राण नहीं फूंक सकते ।
मनुष्य का जीवन एक
तालाब में तैरती हुई
मछली के समान होता जा
रहा है जिसको शीशे के
एक सुन्दर से
जार में रख
दिया है देखने को
तो, वो मछली बहुत ही
भाग्यशाली है जो
तालाब की मिट्टी और
पानी से निकलकर एक
बड़े आलिशान और
रंगीन दुनिया में
आ जाती है
जहाँ चमक है,
भोजन है, साफ
निर्मल जल है,
देखभाल करने के
लिए, लोग लगे
हुए हैं बिना कष्ट के
उसे खाने के
लिए खाना मिल
रहा है परन्तु वो
मछली शायद इस
बात से अनजान है
कि वो कहीं न कहीं खुद
की स्वतंत्रता को
छोड़ किसी और
पर आश्रित हो
गई है ।
अब उसके पास
तैरने के लिए
एक बड़ा तालाब नहीं है
न ही
परिवार के साथ
जीवन जीने का
अनुपम आनंद, उसकी दुनिया कहीं न कहीं उस
शीशे की दुनिया में
ही कैद हो
गई जो उसने चाहते या
न चाहते हुए
अपनों से दूर
बना ली है
। जिसमें वो
खुद को खुश
दिखा रही है
।
वर्तमान परिदृश्य में
देखा जाये तो
ठीक यही इस
समय स्थिति मानव ने
अपनी बना ली
है । रोजगार की
तलाश में वो
खुद को शहर
की बड़ी-बड़ी इमारतों और
चमक की ओर
धकेलता ही जा
रहा है और
उसे खुद अपनी तरक्की कह
रहा है ।
आधुनिकीकरण और परिवर्तन जीवन का
नियम है, परन्तु इस
नियम के नाम
पर स्वयं के
अधिकारों का हनन और जीवन की
खुशियों का खनन
कर लेना ये
कौन सी बुद्धिमता है
। भारत देश
में शहरीकरण आजादी के
बाद से बहुत तीर्वता के
साथ बढ़ा है
और खुद को
संस्कारी कहने के
नाम पर बिना जाने समझे पाश्चात्य शैली के
अनुसरण की जो
पद्धति विकसित होती जा
रही है ये
युवा पीढ़ी को
न सिर्फ अपने कुटुम्ब से
दूर करती जा
रही है अपितु स्वावलम्बन के
स्थान पर दासता प्रथा की
ओर भी अग्रसित कर
रही है और
पूछने पर गाँव में
शिक्षा और रोजगार का
अभाव बता कर
दोषारोपण करते हैं
। फिर मन
में एक प्रश्न उत्त्पन होता है
कि देश में
शहरीकरण और उद्योगो का
चलन गत ७० वर्षों में
बहुत तीर्वता के
साथ बढ़ा है
तो क्या स्रष्टि के
प्रारंभ से लेकर कई
हजारों सालों में
जब आज जैसे आधुनिक शहर
नहीं थे तो
क्या गाँव में
शिक्षा व्यवस्था नहीं थी,
क्या गाँव में
रोजगार नहीं थे?
क्या जो भूमि कई
हजारों सालों से
आपका भरण-पोषण कर रही थी वो
भूमि अब आपको दो
वक्त की रोटी देने में
भी असमर्थ है
आखिर ऐसा क्यों ?
इसके दो
कारण हो सकते हैं
पहला तो ये
की वास्तव में
समस्या है या
दूसरा ४०० वर्ष अंग्रजों की
गुलामी के बाद
भी आज हम
खुद को मानसिक रूप
से गुलामी से
बाहर निकाल पाने में
असमर्थ हैं ।
हम स्वयं को
उस रूप में
अधिक उत्तम समझने की
कोशिश करने में
लगे हैं जैसे अंग्रेज थे
क्योंकि उस चकाचौंध ने
हमको बहुत अधिक प्रभावित किया ।
आज जिस
गति से गाँव से
पलायन होता जा
रहा है और
पारंपरिक कार्यों को
तुच्छ समझ कर,
हम उससे दुरी बनाते जा
रहे हैं ।
हम अपने त्योहारों की
रंगत और चमक
को शहर की
संकुचित जीवन शैली में
तिलांजलि देते जा
रहे हैं । त्योहारों और
रीती-रिवाजों के उत्सव को
अपनी सुविधा के
अनुसार परिवर्तित करते जा
रहे हैं यह
कहाँ तक उचित है
? ये कहीं न कहीं यह
उस समय अधिक कष्टदायी होगा जब
हम अपनी संस्कृति का
हस्तांतरण आने वाली पीढ़ी को
कर रहे होंगें ।
भविष्य में हमें अपनी पीढ़ियों को
सुनाने के लिए
अपने गाँव और
रीती-रिवाजों की कहानी मात्र ही
शेष रह जाएगी, दिखाने के
लिए अपने दादा-दादी और
नाना-नानी का गाँव और
उनके द्वारा दिए
गए संस्कार नहीं ।
उस समय हमारी भविष्य की
पीढ़ी हम से
सवाल करेगी कि
"आपने गाँव क्यों छोड़ा - क्या हमारा भी
कोई गाँव था
? हमारे गाँव की
परम्परा क्या थी,
हमारे यह त्यौहार कैसे मनाये जाते थे
? तब
हमारे हाथों को
सिकोड़ने के अतिरिक्त हमारे पास
कोई जवाब नहीं होगा ।
कहीं यह शहरीकरण की
अंधी दौड़ में
भविष्य के गाँव और
पूर्व के हजारों साल
की पूर्वजों के
प्रति हमारा किया गया
छल तो नहीं ।
जिन्होंने सदियों से
अपने रीती-रिवाजों और
संस्कारों को बचाये रखा या यह
एक धोखा हो
सकता है जो
हम अपनी संस्कृति के
साथ कर रहे
हैं अपनी सभ्यता के
साथ कर रहे
हैं ?
समस्या से भागना समस्या का
समाधान नहीं है,
यह आपको तत्कालिक प्रभाव तो
दिखा सकता है
परन्तु जीवन पर्यंत नहीं ।
यदि हमारे गाँव में किसी प्रकार की
समस्या है तो
उसका समाधान वैसे ही
होना चाहिए जिस
प्रकार से समाधान कई
सौ वर्षो से
होता आ रहा है
। गाँव की
मिट्टी में आज
भी इतनी शक्ति है
कि वह कई
परिवारों का पेट
पाल सकती है
। कष्ट है
तो मात्र आत्म-मनोबल गिरने, स्वयं की
शक्ति के आंकलन न होने का,
जो शहर की
झूठी चकाचौंध के
कारण हमें पुनः मजबूत संकल्प के
साथ खड़े होने नहीं देती ।
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