सम्पादकीय
भारत की संस्कृति का
इतिहास आज या
कल लिखा गया
ऐसा नहीं है
जिसे जिसने जब चाहा कलम
लेकर कागज पर
लिख दिया और
कह दिया कि
यह भारतीय संस्कृति है
। यह एक
अनन्त काल से
चली आ रही हमारी परम्परा, रीती रिवाजों बड़ों के
विचारों और अपनत्व के
बीज से उत्पन्न एक
धरोहर है ।
जिसकों हम अपने गौरव का
प्रतिक चिन्ह मानते हैं
और धारण करते हैं ।
हमारे देश की संस्कृति ने
अपने अन्दर असंख्य अमूल्य परम्पराओं रीति-रिवाजों का
भण्डार सजा रखा
है जिसे देखकर विश्व के
समस्त देश इसकी सभ्यता,भव्यता, शैली का
अनुसरण करने के
लिए दूर से
खींचे चले आते
हैं । किसी भी देश की
संस्कृति उस देश का आधार स्तम्भ होती है
जो शिक्षा और
ज्ञान की डोर
के सहारे संजोयी जाती है
। हमनें हजारों, लाखों वर्षों से
इस परम्परा और विचारधारा को
न
सिर्फ बचाए रखा
अपितु उसे अपनी अगली पीढ़ी को
वरदान स्वरुप प्रदान किया ।
भारत देश
की धन, धान्य सम्पदा का
हनन करने व लुटने के
उद्देश्यों से कई
आक्रांताओं ने देश
पर आक्रमण किये चाहे वह
मुगलों के रूप
में आये हों
या ब्रिटिश शासक के
रूप में सभी
ने खुल का
इस
पवित्र भूमि पर
न सिर्फ लुट
की अपितु इस
पर अपना अधिकार ज़माने के
लिए यहाँ की
संस्कृति को समाप्त करने के
उद्देश्य से यहाँ की
शिक्षा व्यवस्था को
दूषित किया ।
जब विश्व के
अधिकांश लोग अक्षर का
ज्ञान भी नहीं समझ
पाए थे उस
समय हमारे देश
ने वेदों, और
पुराणों की न सिर्फ रचना की
साथ ही गुरुकुल और
आश्रम के माध्यम से
सभी मानवों को
ज्ञान के असीम ख़जाने से
लाद दिया ।
आज जब हम
अंग्रेजों को देखकर पाश्चात्य शैली से प्रभावित होते है
और उनका व्याख्यान करते है
तो उससे पूर्व हमें अपनी गौरवशाली परम्परा को
समझ लेना चाहिए और
उसके कारण व उपस्तिथि के
विषय में गहन
मंथन कर लेना चाहिए ।
यदि हम ऐसा
शांत चित भाव
से करते हैं
तो हम पायेंगे कि
हमारी संस्कृति अत्यधिक विशाल और
व्यावहारिक है ।
आधुनिक समय
में एक चिंता का
विषय और भी
है, हम अपनी पौराणिक शिक्षा पद्धति को
तो छोड़ते ही
जा रहे है
साथ ही जो
हमारे रीती-रिवाज और
परपराओं का केंद्र है
"हमारे गाँव" उससे, आधुनिकता और
सुविधा के नाम
पर दुरी बनाते जा
रहें हैं ।
आज भी एक
बात ध्यान देने योग्य है
कि जब एक
पेड़ को जमीं से
निकाल कर सुनहरे गमले में
लगाया जाता है
तो देखने में
वह कितना ही
आकर्षित लगे परन्तु कहीं न कहीं वह
अपने स्वयं के
वास्तविक अस्तित्व से
दूर होता जाता है
अब उसे सदैव उस
गमलें में पानी-खाद डालने वाले पर
आश्रित रहना पड़ेगा ।
जिस गमलें को
पाकर वह स्वयं का
विकास कह रहा
है और खुद
को गौरवान्वित महसूस कर
रहा है वास्तव में
उसने उस वृक्ष का
सब कुछ छीन
कर उसको जीवन पर्यंत के
लिए अपंग बना
दिया । देखने में
वह शायद किसी सुन्दर आलिशान घर
के ड्राइंग रूम
में रखा हो
लेकिन वास्तव में
उसका परिवार, उसकी मानसिक शांति, आत्मनिर्भरता और
वंश वृद्धि की
सम्भावना भी कहीं न कहीं पीछे छुट
गई । बचा
तो क्या ? और मिला तो
क्या ? यह प्रश्न
आपके चिंतन करने लिए छोड़
रहा हूँ अगले अंक
में आपके सुझावों के
आधार पर इस
पर चर्चा करेंगें..
विनम्र अनुरोध, गाँव संस्कृति के
इस अंक को
पढ़िए और अपने विचार मुझ
से साझा करें, आपके साथ
किये गए संयुक्त प्रयास से
इस पत्रिका को
आगे ले जाने में
सहायता होगी...
धन्यवाद्
प्रशान्त
मिश्र
सम्पादक
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