जीवन
जीने का मूल मन्त्र
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।
यह मेरा है, यह पराया है;
ऐसी गणना संकुचित ह्रदय वाले व्यक्तियों
की होती है; इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार
के समान है। यदि हम सम्पूर्ण विश्व को अपने परिवार के रूप में देखते हैं और उनके साथ अपने परिवार
के सदस्यों जैसा आचरण करने का प्रयास करें तो आपसी विवाद और अपने-पराये का भेद समाप्त
हो जाएगा,
इसी प्रकार पृथ्वी को अपना घर मनाकर उसकी
देखभाल करने का भाव मन में हो तो यही धरती स्वर्ग बन जाएगी और जीवन संतोष से परिपूर्ण
होगा। यही जीवन जीने का मूल मन्त्र है।
निज स्वार्थ का भाव मन में लिए जीवन दुःखों का कारण बनता है और लोक कल्याण
का भाव मन में शांति प्रदान करता है। आज हम हैं कल नहीं थे,
कल भी नहीं होंगें,
यही जगत की रीती है। जिसका जन्म हुआ है
उसके भाग्य में जन्म के साथ ही मृत्यु का समय भी अंकित हो चुका है,
यह शरीर यह काया एक निश्चित काल क्रम के
लिए प्राप्त हुई है। अब ईश्वर के द्वारा प्रदत्त इस काया को हम जीवन और सांसारिक मोहजाल
में लगायें बैठे रहेंगें तो निश्चय ही दुःख का भागी बनना पड़ेगा।
हमें सांसारिक , आर्थिक और भौतिकतावाद के मोहजाल में न फंसते
हुए आत्म संयम और शांति के मार्ग पर चलना होगा। भगवान गौतम बुद्ध के पास सभी प्रकार
की भैतिक सुख-सुविधा, विलास की वस्तुएँ और साधनों की बड़ी मात्रा
थी लेकिन वह साधन भी मन को शांति का भाव नहीं दे सकें। यह मात्र एक उदहारण है हमारी
संस्कृति की धरा भारत अनन्त काल से सन्यासी और तपस्वियों की भूमि रही है। इस भूमि में
बड़े-बड़े राजा, महाराजा, पूंजीपति हुए,
जिन्हें जीवन का वास्तविक सुख विश्व कल्याण
के भाव में दिखाई दिया, इसलिए उन्होंने अपना सब यश,
वैभव का त्याग कर शांति की रह चुनी और तपस्वियों
जैसा जीवन व्यतीत किया। महर्षि दधिची ने लोक कल्याण के लिए अपने शरीर का त्याग कर दिया।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्
भवेत्।।
अर्थात् सभी सुखी हो, सभी निरोगी हों,
सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी
दुःख का भागी न बनना पड़े, का भाव लिए हम सदियों से अपने जीवन का यापन
कर रहें हैं। प्रतिदिन नित्य पूजा-पाठ के क्रम में हम विश्व कल्याण के जयकारों का उद्घोष
करते हैं। वास्तव में यही जीवन का सार है यही जीवन का आधार है जब-जब हम इस पथ के भाव
से तनिक भी विचलित होंगें तब स्वतः ही हमारा मन पीड़ा और कुंठा से भर जायेगा और जब हम
इस पथ पर बिना किसी निज स्वार्थ के चलते रहेंगें तो इस पथ पर आत्मीय आनंद के पुष्प
आप के चरणों नीचे आकर आपके मार्ग को प्रफुल्लित कर देंगें। यह पथ देखने में जितना सरल
है वास्तव में उतना ही अधिक कठिन है, हमें स्वयं पर संयम रखना होगा,
हमें द्रण संकल्पित होकर चलना होगा। समय-समय
पर बाधाएं हमें विचलित करेंगी, हमें मार्ग से हटने के लिये विवश कर देंगीं।
ऐसी विषम परिस्थतियों में ही जो अडिग होकर अपने निश्चय पर टिका रहेगा,
वही सही अर्थों में उपरोक्त श्लोक के भाव
को चरितार्थ करता है।
लेकिन यह कठिन है मानव के लिए क्योंकि मानव शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ
होती हैं आँख, कान, नाक, जीभ, और त्वचा। जो हमें सदा विचलित करने का प्रयास
करती हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ ईश्वर ने शरीर के ऊपर की ओर बनाई हैं परमात्मा ने ज्ञान
को प्रधानता दी है और यह संकेत भी दिया है कि ज्ञान के अनुसार,
विवेक के अनुसार ही कर्म करो इनसे तुम्हें
सुख मिलेगा और यदि इनका संतुलन बिगड़ गया तो जीवन दुःखों का कारण बनता है। आँख का काम
है देखना,
कान का काम है सुनना,
जीभ का काम है स्वाद लेना और बोलना त्वचा
का काम है महसूस करना, मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों
के संतुलन में फंसा रहता है। जिनके पास विवेक होता है वह इसका कुशलतम उपयोग करते हैं
और जिनके पास विवेक की कमी होती है वह इनके माध्यम से स्वयं को हानि पहुंचाते हैं।
इन्हीं के आधार पर आपके आचरण और आपकी प्रगति का निर्धारण भी होता है।
हमें प्रयास करना चाहिए इस भौतिकतावाद के मकड़जाल से निकलने का, एक सामान्य मनुष्य के लिए यह एकदम असम्भव
सा प्रतीत होता है लेकिन प्रयास तो स्वयं को ही करना होगा इसमें हमारी निज प्रेरणा
के अतिरिक्त कोई अन्य किसी भी प्रकार की कोई मदद नहीं कर सकता,
और यदि हम दूसरों से पूछ कर इस मार्ग पर
चलने का प्रयास करेंगें तो हम उन्हें देखकर स्वयं ही इस भौतिकतावाद में फंसते चले जायेंगें।
जीवन का सार जब जीवन के अंतिम दिवसों में अंकित किया जाने लगेगा तब आप
स्वयं अपने जीवन की उपलब्धियों की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए अवश्य सोचेंगें कि क्या
मेरा जीवन, मात्र सांसारिक मोह-बंधनों में ही उलझा रह गया,
जब हम विचार करेंगें कि अपने सम्पूर्ण जीवन
काल में हमने लोक-कल्याण के लिए क्या किया हम किन्हीं भी श्रेष्ठ महापुरुषों की सूचि बना उनके जीवन के साथ अपने जीवन का तुलनात्मक
अध्ययन करेंगें तो शायद हमें यह अंदाजा हो कि वास्तव में जीवन निरर्थक हो गया। तब हो
सकता है कि पछतावा हो, या नहीं भी हो,
हम चाहें तो तुलनात्मक अध्ययन अभी भी कर
सकते हैं लेकिन एक बात पुनः याद रखने की है कि तुलना अपने से श्रेष्ठ से हो,
न कि हम जिनसे श्रेष्ठ हैं। कई बार हम अपनी
सुविधा के अनुसार मापदण्ड का निर्धारण भी कर लेते हैं और स्वयं ही उसके निरीक्षक बन
कर मूल्यांकित भी कर लेते हैं। इससे मन को अल्पकालीन सुख की अनुभूति तो होगी लेकिन
दीर्घकालीन संतुष्टि की अनुभूति नहीं। इसकी हमें चिन्ता करनी होगी,
अन्त में विशेष यह कि लोग आपके विचारों को सुनकर नहीं आपके व्यवहारों
को देखकर सीखते हैं। इसलिए हमें स्वयं को एक आदर्श के रूप में समाज को समर्पित करना
होगा. जिससे की वह स्वयं को अपने चिर-परिचितों एवं आने वाली पीढ़ियों को एक प्रेरणा
के रूप में स्थापित कर सकें, हमें इस प्रण के साथ अपने जीवन में आगे
बढ़ाने का संकल्प लेकर के चलना होगा। हम सुधरेंगें, जग सुधरेगा,
हम बदलेंगें,
जग बदलेगा...
- प्रशान्त मिश्र
(लेखक सामाजिक चिन्तक और विचारक हैं)
मुरादाबाद,
उत्तर प्रदेश
सम्पर्क सूत्र- 7599022333
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