वैचारिक
मतभेदों से मनभेद नहीं होना चाहिए
छोटी-छोटी
बातों पर लड़ना और आपस में मनों की दुरी बना लेना। यह कार्य हम सभी को सार्वजानिक
जीवन में आगे बढ़ाने के स्थान पर समाज से दुरी बनाने की ओर अग्रसित करता है। एक
कुशल नेतृत्वकर्ता होने के लिए आपको इस विषय को न सिर्फ जानना अपितु समझना भी
अत्यंत आवश्यक है। सामान्य जीवन में जब कभी हम देखते हैं कि कहीं किसी भी स्थान पर
किसी भी विषय को लेकर चर्चा चल रही है तब हम अपनी बुद्धि का परिचय देने के
उद्देश्य से भाव वश उक्त चर्चा में स्वयं कूद जाते हैं। धीरे-धीरे चर्चा,
चर्चा के स्थान पर बहस बन जाती है और हम उत्तेजित होकर प्रतिद्वंदी।
फिर भीषण संग्राम का भी शंखनाद हो जाता है। परिणाम स्वरुप उस स्थान पर जितने भी
विपक्ष के पक्षकार थे वह आक्रोशित होकर मनभेद के द्वार पर चले जाते हैं। ऐसी
स्थिति में कुशल नेतृत्वकर्ता सभी विषय को गम्भीरतापूर्वक सुनता है समझता है और
यदि अत्यंत आवश्यक होता है उस दशा में तर्कों के आधार पर अपना निर्णय देता है। जब
आवश्यक न हों तो शान्ति पूर्ण रूप से विषय की अति महत्त्वपूर्ण जानकारी एकत्र करके
अपने ज्ञान के कोष में वृद्धि करता है।
यहाँ
दोनों शब्दों का अर्थ पूर्ण रूप से समझना भी आवश्यक हो जाता है। वैचारिक मतभेद का
अर्थ होता है कि किसी भी विषय पर तर्कपूर्ण विचार प्रस्तुत करना उस पर अपनी
स्वीकृति व अस्वीकृति देना। यह मतभेद मात्र विषय को लेकर होता है इसका व्यक्ति के
निज जीवन में कहीं स्थान नहीं होता। इस प्रकार के मतभेद शिक्षा जगत में,
राजनैतिक जगत में प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिलते हैं। राजनैतिक
क्षेत्र में खासकर हम यह देखते हैं कि शब्दों के युद्ध में ये परस्पर इतने उत्तेजित
और आक्रामक हो जाते है कि गंदे शब्दों की पराकाष्ठा हो जाती है। लेकिन कुछ समय के
पश्चात् वह सभी जो शब्दों के युद्ध में एक दुसरे मारने के लिए तैयार थे, साथ बैठकर
चर्चा करते हैं चाय एवं आहार का सेवन करते हैं।
वहीं
दूसरी ओर जब हम मनभेद की बात करते हैं तब यह देखने को मिलेगा कि मनभेद का मुख्य
आधार वैचारिक मतभेद की शुरुवात थी जो एक समय के
बाद अपना मार्ग परिवर्तित करके मनभेद के मार्ग पर चलने लग जाती है। आपस में
वैचारिक और सामाजिक दुरी का बनना ही मन भेद का परिणाम है। कभी-कभी यह स्थिति इतनी
विकराल भी हो जाती है कि दुरी झगड़े और लड़ाई का रूप धारण करके सम्पूर्ण जीवन भर के
लिए बन जाती है। हमें चिंता करनी होगी कि जीवन में कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने
पाए। राइ का पहाड़ बनते देर नहीं लगती।
मस्तिष्क
यह कहता है कि वैचारिक मतभेद के उपरान्त यदि मनुष्यों के ह्रदय में मन भेद का भाव
उत्पन्न हो गया हो तो उन्हें आपसी समझ और दिमाग के शांत होने के पश्चात् सब कुछ
भुला कर पुनः वैचारिक मतभेद की स्थिति में ही आ जाना चाहिए लेकिन अधिकांश यह देखने
को मिलता है कि मन भेद का दायरा इतना अधिक विशाल हो चूका होता है कि अब उसमें बनी
दुरी को सरलता से दूर नहीं किया जा सकता है। वास्तव में जब हम किसी विचार के रण को
अपनी निज प्रतिष्ठा का प्रश्न बना देते हैं तो हमारे भीतर स्थित अहंकार का भाव
हमें सही विषय का ज्ञान होते हुए भी हार स्वीकार करने से रोक देता है। यह वैचारिक
मतभेद जीत-हार का विषय नहीं होती, अपितु यह मात्र
ज्ञान का आदान-प्रदान कर अपनी समझ की धार को अधिक प्रबल करने का साधन होती है। इसे
प्रतिष्ठा का प्रश्न बना देना शायद ही किसी बुद्धिजीवी को शोभा देता हो। सही
अर्थों में यदि वह बुद्धिजीवी है तो विचारों के द्वंद में वह मन को कभी भी नहीं
आने देगा। यदि कभी दुर्भाग्य वश ऐसी स्थिति उत्पन्न होती भी है तो वह क्षणिक ही
होती है।
वर्तमान
समय में जब आपसी विचारों के आदान-प्रदान का तंत्र अत्यधिक मजबूत हो गया है इस
स्थिति में हमें अपने मन और मस्तिष्क पर विशेष रूप से नियंत्रण करने की आवश्यकता
है। इंटरनेट, टेलीविजन, सोशल
मिडिया आपके विचार को पल भर में कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है इसका शायद ही उपभोक्ता
अंदाजा लगाते हों और इसके परिणाम क्या और कितने व्यापक होते होंगें इसकी यदि हम
विचार रखने से पहले कल्पना भी कर लें तो हम विभिन्न प्रकार की विपदाओं से न सिर्फ
स्वयं को बचाने में सक्षम होंगें अपितु समाज को भी होने वाली पीड़ा से बचा सकेंगें।
अधिकांश यह देखने को मिलता है कि हम इंटरनेट और खासकर की सोशल मिडिया पर चल रहे
व्यापक वैचारिक युद्ध में बिना विषय और उसकी
गंभीरता को समझे अपने ही कूद पड़ते हैं। अपने मन की तात्कालिक शांति और
मानसिक मल का त्याग कर हम स्वयं को खुश और मानसिक रूप से तो हल्का महसूस करने लगते
हैं लेकिन आपके मानसिक मल के त्याग से जो दुर्गन्ध समाज में फ़ैल गई उससे कितने लोग
दूषित होंगें इसे जानने और समझने का कभी भी प्रयास नहीं करते हैं।
इसी
प्रकार से समाचार चैनलों में आजकल व्यापक रूप से वैचारिक रण के कार्यक्रम प्रसारित
किये जा रहे हैं जिनमें विभिन्न विचारों के लोग आ कर अपने-अपने विचार को साझा करते
हैं। कई बार यह वैचारिक मतभेद,
मनभेद का रूप धारण कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर अपशब्दों, अनुचित टिका टिप्पणी का प्रयोग करने लगता है। समझने योग्य बात यह है कि
कार्यक्रम तो अपनी समय सीमा को समाप्त कर विश्राम ले लेता है लेकिन उस प्रसारण के
श्रोता उस रण को अपने सामाजिक जीवन में उतार का अनवरत चलाते रहते हैं और प्रत्यक्ष
और अप्रत्यक्ष रूप से असंख्य श्रोता भी उस रण में कूद पड़ते हैं।
देश
और दुनिया में निवास करने वाले असंख्य लोगों में किन्हीं दो की भी काया,
रूप, रंग, बनावट पूर्ण
रूप से एक जैसी नहीं होती है तो सभी व्यक्ति के विचार भी एक जैसे नहीं हो सकते
हैं। हमें जो वस्तु पसन्द हो यह जरुरी नहीं कि वह सभी को पसंद हो। जो हमारे लिए हितकर है जरुरी नहीं की वह किसी
दुसरे व्यक्ति के लिए भी हितकर हो। इसी प्रकार हमारे विचार हमारे जीवन के अनुभव और
अतीत में घटित घटनाओं के परिणाम होते हैं सभी का जीवन अलग है पर उनके जीवन जीने की
परिस्थिति भी अलग-अलग रही है तो यह भी स्वाभाविक है कि उनके विचार भी अलग-अलग ही
होंगें। इस विषय को समझ कर ही हमें वैचारिक युद्ध में उतरना चाहिए साथ ही विचारों
और ज्ञान के युद्ध को प्रतिष्ठा का मापक नहीं बनाना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो
मनभेद की स्थिति उत्पन्न होगी और यह स्थिति किसी भी व्यक्ति और समाज के लिए हितकर
नहीं हो सकती।
- प्रशान्त मिश्र
(लेखक
सामाजिक चिन्तक और विचारक हैं)
ग्रेटर
नोएडा वेस्ट,उत्तर प्रदेश
सम्पर्क सूत्र- 7599022333
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