संस्कृत से बढ़ती दुरी,
हमें हमारी संस्कृति और संस्कार से दूर कर रही है
दूसरी
भाषा सीखना कोई बुरी बात नहीं,
लेकिन संस्कृति की भाषा संस्कृत सीखने से परहेज क्यों ?
समाज में अंग्रेजी भाषा का चलन तीर्वता से बढ़ रहा है। जिसके कारण पाश्चात्य शैली की ओर लोगों का ध्यान अधिक आकर्षित हो रहा है। इसी को उपयोगी मानकर हम अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। यह चिंता का विषय है। हमें अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। यह तब तक संभव नहीं है जब तक हम अपनी संस्कृति के महत्त्व को गहराई से नहीं समझते। भारत देश के अधिकांश भूभाग में सामान्य हिंदी बोली व समझी जाती है। भारतीय संस्कृति के मूल स्तम्भ हमारे धार्मिक ग्रन्थ अधिकांश संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। जिनको जानने और समझने के लिए संस्कृत भाषा को जानना और समझना नितांत आवश्यक है। क्षमा करें लोग सही से हिन्दी नहीं पढ़ पा रहे हैं तो संस्कृत पढ़ना, समझना और लिखना बहुत ही कठिन विषय बनता जा रहा है।
भारतीय संस्कृति का गौरवशाली इतिहास, अतुलनीय ज्ञान का विशाल भण्डार संस्कृत भाषा में ही लिखा गया है। सनातन संस्कृति का सबसे आरंभिक स्त्रोत चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अर्थववेद संस्कृत में है। पुराणों की भाषा भी संस्कृत है। श्रीमद भागवत गीता जो सिर्फ एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं अपितु जीवन जीने की कला एवं विज्ञान है। दुनिया के कई देशों में गीता पाठ्यक्रम का अंग है। अमेरिका की न्यूजर्सी विश्वविद्यालय में गीता अनिवार्य विषय के रूप में पढाई जाती है इसकी मूल भाषा संस्कृत है। इसका महत्त्व आप इस प्रकार समझ सकते हैं गीता एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसका दुनिया की सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद किया गया है। भारत के लोगों को संस्कार, अपनत्व, समर्पण, त्याग, धैर्य का पाठ सिखाता हुआ हमारा धार्मिक ग्रन्थ "रामायण" संस्कृत भाषा में ही है। जिसमें प्रभु श्रीराम के द्वारा पिता द्वारा दिए गए वचन को पूर्ण करने के लिए समस्त राज-काज को त्यागने का उदाहरण हमें जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इस पवित्र ग्रन्थ का प्रत्येक शब्द हमारे जीवन को पवित्र और हमें सदाचारी बनाता है।
भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण पूजा पद्धति संस्कृत में है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जो भी धार्मिक कार्य हों, वह नामकरण संस्कार, मुंडन संस्कार, उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार आदि कुछ भी हो सकता है अथवा जब कभी भी घर पर कोई भी धार्मिक पूजा-पाठ का भी आयोजन किया जाता है और पुरोहित का घर आगमन होता है तो उन सभी में वह सम्पूर्ण मंत्रोच्चार संस्कृत भाषा में ही करते हैं। यह अभी से नहीं है यह अनंत काल से चला आ रहा है। पुराने समय में लोग पूजा पद्धति को भी समझते थे और उसके महत्त्व को भी, लेकिन वर्तमान में हम भाषा की अज्ञानता के कारण सब कुछ भूलते जा रहे हैं और जिनके अन्दर थोड़ी बहुत भी धार्मिक भावना शेष है वह पुरोहित को बुला कर पूजा पाठ करवाते तो हैं लेकिन मौन बन कर सिर्फ देखते रहते हैं। कारण स्पष्ट है कि हम संस्कृत समझते नहीं, कहीं हमारा मजाक न बने इसलिए हम पूछने से कतराते हैं और पूजा पाठ भी हमारे जीवन में एक मात्र औपचारिकता बन कर ही रह जाती है।
यहाँ हम कुछ उदहारण के माध्यम से इसे और अधिक प्रभावी रूप से समझ सकते हैं। किसी भी दिन की शुभ आरम्भ हमें सदैव शुभ चीजों को ही देखकर करना चाहिए। इसके लिए भारतीय ऋषि- मुनियों ने हमारे लिए उचित मार्ग दिखाते हुए हमें करदर्शनम का संस्कार दिया है। अर्थात् सुबह सुबह उठकर अपने हाथों की हथेलियों को खोलकर दर्शन करने हेतु कहा है जिससे हमारी दीन-दशा सुधरती है और सौभाग्य में वृद्धि होती है।
जिसके साथ ही एक श्लोक पढ़ने का भी संस्कार है।
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तू गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम।।
इसका अर्थ है कि हमारे हाथ के अग्रभाग में माँ लक्ष्मी, मध्य में विद्या की देवी सरस्वती और हाथों के मूल में भगवान विष्णु का वास है प्रातः मैं इनके दर्शन करता हूँ।
इसी प्रकार जब हम अपने बिस्तर से उठकर सर्वप्रथम धरती पर अपना पैर रखते हैं तो इससे पूर्व एक श्लोक के माध्यम से धरती माता को प्रणाम करते हुए क्षमा याचना करते हैं।
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥
अर्थात्-हे समुद्र रूपी वस्त्र धारण करने वाली, पर्वत रूपी स्तनों वाली एवं भगवान श्रीविष्णु की पत्नी, हे भूमिदेवी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मेरे पैरों का आपको स्पर्श होगा। इसके लिए आप मुझे क्षमा करें।
इसके अतिरिक्त भोजन करते समय भोजन के लिए और प्रभु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु बोले जाने वाला मन्त्र सभी संस्कृत भाषा के मन्त्र ही तो हैं। जो हमें हमारे संस्कारों से जोड़ते हैं।
भारत एक विशाल देश है जहाँ की स्थानीय भाषा लगभग हर 50 किलोमीटर पर बदलती जाती है यहाँ मैथली, अवधी, पालि, मारवाड़ी, मराठी, राजस्थानी, सिन्धी, भोजपुरी, बंगाली, गुजराती, असमिया, कोंकणी, सहित कई भाषाएँ बोली और समझी जाती हैं। सभी को अपनी अपनी भाषा पर गर्व है क्योंकि यह कई सौ वर्षों से चली आ रही भाषा है। संस्कृत कई भारतीय भाषाओं की जननी है जिनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली है या संस्कृत से प्रभावित है। संस्कृत सभी को एक सूत्र में बांधने का कार्य करती है। इसलिए संस्कृत को समझना तो होगा ही, या अज्ञानी बन कर देखते रहिए। हमें विभिन्न प्रकार की भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। हमें यदि कई भाषा लिखनी पर पढ़नी आती हैं तो यह तो और अति उत्तम है। परन्तु दुसरे को सीखते-सीखते और अनुसरण करने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि आप अपनी वास्तविक पहचान को खो दें।
जब मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम चन्द्र ने अपने अनुज भाई लक्ष्मण से लंका विजय के बाद वापस अपने घर अयोध्या चलने को कहा तो इसके पीछे का मूल उद्देश्य अपनी संस्कृति, रीती-रिवाज अपने कुल और वापस अपनों के बीच जाने का था। लंका भले ही स्वर्ण से निर्मित थी और अनन्त सुख सुविधाओं से परिपूर्ण थी फिर भी वह अपनत्व प्रदान नहीं कर सकती थी। यही अपनत्व का भाव हमें हमारी भाषा संस्कृत से मिलता है।
भारत देश में हमें मानसिक गुलाम बनाने के लिए सदियों से हमारी संस्कृति को प्रभावित करने के लिए अनेकों प्रयास किये गए। जिनमें पारम्परिक गुरुकुलों को समाप्त करना और वैदिक शिक्षा से हमें विमुख करना सर्वोपरी रहा। इसमें हमें संस्कृत भाषा से दूर करना और विदेशी भाषा हम पर थोपने प्रमुख है। हमें कभी न कभी तो मुगलों और अंग्रेजों की गुलामी वाली मानसिकता से बाहर निकलकर सोचना होगा हमें अपनी संस्कृति और अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्व करना होगा। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक की हम अपने पौराणिक धार्मिक ग्रंथों को नहीं पढ़ना प्रारंभ करते हैं उनके अंदर छिपे अनन्त ज्ञान पर चर्चा और उसका प्रचार-प्रसार प्रारंभ नहीं करते हैं।
इसके लिए जरुरी है कि हम हमारी मूल भाषा को समझें और जानने का प्रयास करें। साथ ही हमारे प्राचीन ग्रंथों को समझने के लिए संस्कृत भाषा के प्रति मन में विश्वास और समर्पण का भाव उत्पन्न करें।
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प्रशान्त मिश्र
(लेखक
सामाजिक चिन्तक और विचारक हैं)
मुरादाबाद,
उत्तर प्रदेश
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